किसान दिवस विशेष: रुरल मिडिल क्लास के जनक चौधरी चरण सिंह

इस समय केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का आंदोलन चल रहा है। असल में यह आंदोलन इन तीन कानूनों की उत्तपत्ति की वजह से कम और पिछले करीब दो दशकों से किसानों और ग्रामीण मध्य वर्ग जिसे हम रुरल मिडिल क्लास कहें तो ज्यादा सटीक होगा की वह बेचैनी है जिसमें इनकी बेहतरी की उम्मीदों पर पानी फिरता दिखता है।

किसान दिवस विशेष:  रुरल मिडिल क्लास के जनक  चौधरी चरण सिंह

इस समय केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का आंदोलन चल रहा है। असल में यह आंदोलन इन तीन कानूनों की उत्पत्ति की वजह से कम और पिछले करीब दो दशकों से किसानों और ग्रामीण मध्य वर्ग जिसे हम रुरल मिडिल क्लास कहें तो ज्यादा सटीक होगा की वह बेचैनी है जिसमें इनकी बेहतरी की उम्मीदों पर पानी फिरता दिखता है।  मैं सत्तर के दशक की बात कर इसे समझाने की कोशिश करता हूं उस समय उत्तर भारत में चौधरी चरण का राजनैतिक उभार चरम पर था।  1977 के लोक सभा चुनावों के पोस्टरों में चौधरी चरण सिंह की तसवीर के साथ लिखा देश का भविष्य, देहात का भविष्य का वह नारा मुझे अभी भी याद है। उस समय मैं स्कूली शिक्षा के दौर में था। यानी लोग उनमें ग्रामीण भारत की आर्थिक उन्नति लाने वाले नेतृत्व की छवि देख रहे थे। या यूं कहें कि उस समय देहात के भविष्य को देश के भविष्य के साथ जोड़कर देखने का विचार जिंदा था। यह सब अचानक नहीं हुआ था इसके पीछे चौधरी चरण सिंह के एक बेहतर प्रशासक और राजनेता के रूप में उठाये गये वह नीतिगत और कानूनी कदम थे जिनके चलते धीरे-धीरे उत्तरी भारत के एक बड़े हिस्से में रुरल मिडिल क्लास खड़ा हो रहा था। उसकी कमाई बढ़ रही थी जिसके चलते शहरी और ग्रामीण भारत के बीच आय का बहुत ज्यादा अंतर नहीं रह गया था।

असल में जहां देश के विभाजन से पहले के पंजाब में सर छोटू राम ने कृषि और किसानों के लिए नीतिगत और कानूनी स्तर पर अहम काम किया। उनके इस काम ने इस क्षेत्र के किसान की बेचारे की छवि को बदलना शुरू कर दिया था। पहले विश्व युद्ध के बाद के इस दौर में बदलाव का असर किसानों तक पहुंचने लगा था। उन्होंने किसानों पर कर्ज और साहूकारी से जुड़े कानूनों के साथ एग्रीकल्चर प्रॉड्यूस मार्केट कमेटी कानून बनाने के साथ ही पंजाब वे एंड मीजरमेंट कानून बनाकर किसानों के लिए एक संगठित और रेगुलेटेड बाजार को मूर्त रूप दे दिया था। जिसने किसानों को उनकी फसलों के लिए वाजिब दाम की ओर कदम बढ़ा दिये थे। साथ ही जमीन और खुद कास्त किसान के बीच का रिश्ता मजबूत कर साहूकारों और शहरो में रहने वाले बड़ी जमीनों के मालिक जो खुद खेती नहीं करते थे,  उनकी धमक को कमजोर कर दिया था। यही नहीं देहाती क्षेत्र में ज्यादा पैसा कैसे पहुंचे उसके लिए उन्होंने ब्रिटिश फौज में भरती  लिए किसान परिवारों के युवकों को प्रेरित भी किया। यानी ग्रामीण की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए यह कदम उनकी देन रहे। किसानों के बच्चों को बेहतर शिक्षा मिले और वह सरकारी नौकरियों में इसके लिए भी कोष बनाया।

जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो यहां सर छोटू राम के इन कदमों के कुछ  अंतराल पर ही चौधरी चरण सिंह ने सरकारी नीतियों के केंद्र में कृषि और किसानों को लाने की मुहिम शुरू कर दी थी। एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के उनके उभार ने उनको इस दिशा में आगे बढ़ने की हिम्मत दी। वैसे अधिकांश लोग मानते हैं कि 1939 में सर छोटू राम ने पंजाब में मंडी एक्ट सबसे पहले लागू कराया था यह सच भी है उस समय वह पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार में  रेवेन्यू मंत्री थे। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि इसके दो साल पहले 1937 में मेरठ (दक्षिण पश्चिम) सीट जो गाजियाबाद और बागपत तहसील को मिलाकर बनती थी, से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश असेंबली में पहुंचे चौधरी चरण सिंह ने 1938 में एग्रीकल्चर प्रॉड्यूस मार्केट बिल पेश किया था। जिसका मकसद किसानों को बिचौलिया अनाज डीलरों के शोषण से बचाना था। यह बात अलग है कि राजनीतिक विरोधों के चलते यह विधेयक आजादी के 27 साल बाद 1964 में उत्तर प्रदेश विधान सभा में पारित हो सका। यही नहीं उन्होंने 1946 में कांग्रेस विधायक दल की एक्जीक्यूटिव कमेटी के सामने खेती- किसानी पर जीवन बसर करने वाले परिवारों के बच्चों को सार्वजनिक उपक्रमों की नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव पेश किया था। हालांकि इस पर कभी भी उनकी पार्टी ने विचार नहीं किया। इसी साल उन्होंने लैंड यूटिलाइजेशन बिल तैयार किया जो बाद में जमींदारी उन्मूलन कानून का आधार बना। उन्होंने 1945 में बनारस में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में हुए किसान सम्मेलन में उन्होंने कांग्रेस का मैनिफेस्टो तैयार किया और जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव रखा जिसे उसी साल दिसंबर में आल इंडिया कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने पारित कर दिया था। इसी बैठक में उन्होंने किसान परिवारों के बच्चों की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी बढ़ाने का प्रस्ताव भी तैयार किया लेकिन इस पर उन्हें कभी भी आपनी पार्टी का समर्थन नहीं मिला।

1947 में उन्होंने हाउ टू अबोलिश जमींदारी: विच अल्टरनेटिव सिस्टम टू अडोप्ट लिखा। 1952 में जमींदारी उन्मूलन विधेयक के पारित होने में उनकी अहम भूमिका रही। असल में जमींदारी उन्मूलन का यह कानून वाम विचारधारा की तरह जमीन का रिडिस्ट्रिब्यूशन नहीं था। इसके खुद काश्त करने वाले किसानों को मालिकाना हक मिला। साथ ही वह जमीन को एक पारिवारिक एंटरप्राइज की तरह मानते थे जो किसानों की आय बढ़ाने का उपाय। इसलिए वह जमीन के बहुत छोटी जोत के पक्ष में भी नहीं था और उनका मानना था कि जोत का आकार किसान के जीवन यापन के लिए एक  न्यूनतम सीमा तक होना जरूरी है। इसके साथ ही उन्होंने किसान क आर्थिक व्यवहार्यता के लिए चकबंदी को भी लागू किया। कांग्रेस विधायक दल के जनरल सेक्रेटरी रहते हुए 1956 में अबोलिशन ऑफ जमींदारी इन यूपी: क्रिटिक्स आंसर्ड किताब लिखी। यह किताब यूपी लैंड रिफार्म और जमीदारी उन्मूलन के लिए कानून लाने के तर्क और राजनीतिक जद्दोजहद का ब्यौरा भी देती है। फरवरी 1959 में उन्होंने अग्रेरियन रिवोल्यूशन इन उत्तर प्रदेश लिखी। वहीं 1959 में ज्वाइंट फार्मिंग एक्स-रेड: द प्राब्लम एंड इट्स साल्यूशन किताब लिखी। यह किताब उस विचार का विरोध करने के लिए थी जिसके तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सामूहिक खेती या कोआपरेटिव खेती को लागू करना चाहते थे। चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित नेहरू के इस विचार का विरोध किया था। यह भारतीय राजनीति का वह दौर था जब कांग्रेस में रहते हुए उसका कोई सदस्य प्रधानमंत्री के मत का विरोध कर सकता था। लेकिन यह न तो इंदिरा गांधी के समय में संभव था और न ही आज के माहौल में संभव है। चौधरी चरण सिंह का मत था कि भारत में खेती की अलग सामाजिक भूमिका है और यहां किसान का अपनी भूमि से बहुत लगाव है। वह छोटा किसान ही क्यों न हो वह अपनी जमीन पर खुद खेती करना चाहता है। वह किसान को एक फैमिली आंत्रप्रेन्योर के रूप में देखते थे और उसमें अधिक उत्पादन और आय के पक्षधर थे। चौधरी चरण सिंह आर्थिक विषयों के केंद्र में कृषि और किसान  को रखकर लगातार लिखते रहे । जीवन भर उनकी नीतियों और राजनीति का केंद्र किसान इसलिए रहे क्योंकि वह मानते थे कि देश को बचाने के लिए यह जरूरी है। उनके लिए खेती करने वाले लोग सबसे अहम रहे। उनका भरोसा था कि देश के किसान इसकी बड़ी आबादी के लिए सबसे जरूरी हैं। जिसके लिए वह अपने पूरे राजनीतिक जीवन में लड़ते रहे और उनकी कीमत पर चौधरी चरण सिंह ने कोई समझौता नहीं किया। चौधरी चरण सिंह के जीवन पर तीन किताब लिखने वाले अमेरिकी लेखक प्रोफेसर पॉल आर. ब्रॉस लिखते हैं कि चौधरी चरण सिंह ने किसानों की कीमत पर पूरे राजनीतिक जीवन में जहां कोई समझौता नहीं किया, वहीं किसानों के लिए सिर्फ राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए काम नहीं करते थे।

यहां एक बार फिर हम थोड़ा पीछे लौटते हैं जहां पंजाब में पिछली शताब्दी के मध्य तक सर छोटू राम के किसानों और खेती से जुडे कानूनों और फैसलों ने किसानों के मध्य वर्ग की जमीन तैयार की । वहीं उसके बाद वहां हरित क्रांति ने उसमें अहम भूमिका निभाई। पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति के चलते गेहूं की उत्पादकता 10 क्विटंल प्रति हैक्टेयर के बढ़कर 50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक पहुंच गई। यानी पांच गुना। वहीं धान के मामले में यह 25 क्विंटल से बढ़कर 70 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक जा पहुंची है। इसके अलावा बेहतर बीज, उर्वरक और बिजली सब्सिडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद की गारंटी ने किसानों की आमदनी को चार गुना तक बढ़ा दिया।  साथ ही एग्रीक्चर प्राड्यूस मंडी कमेटी (एपीएमसी) एक्ट के तहत हर 15 किलोमीटर में मंडी की स्थापना और आठवें दशक तक अधिकांश गावों में आल वैदर मेटल रोड ने आर्थिक हालात बदले। जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो यहां 1930 के दशक में चीनी मिलों का लगना शुरू हुआ। पहले चीनी मिलें पूर्वी उत्तर प्रदेश में आई लेकिन वहां गन्ना भी चीनी मिले खुद पैदा करती य़ा बड़े जमींदार पैदा करते थे। लेकिन चौथे दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई निजी चीनी मिंलें लगीं। उसके बाद सरकरी और सहकारी चीनी मिलें लगने से गन्ना किसानों के लिए नकदी और एक तय कीमत पर फसल बेचने का मौका आया।  जिसका असर किसानों की आर्थिक बेहतरी के रूप में सामने आया। साथ ही यहां  हरित क्रांति का भी फायदा मिला।  पंजाब और उत्तर प्रदेश और बाद में बने हरियाणा में इस दौरान मजबूत किसान राजनैतिक नेतृत्व का फायदा मिला। इस दौरान ही इन क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर लोग सेना और दूसरे इसी तरह के रोजगार में गये। जिनमें कई कृषि से जुड़ी सरकारी सेवाओं में गये। यह वह लोग थे जो शहरों में नहीं बसे और नौकरी के बाद वापस अपने गांवो में परिवारों के पास लौट आये। गांवों के साथ इनका रिश्ता बरकार रहा। भले ही हम किसानों के इस वर्ग को शहरी मध्य वर्ग के समकक्ष न रखें लेकिन यह वह वर्ग रहा जो नीतियों और राजनीतिक स्तर पर अपनी आवाज उठाना सीख गया था। अस्सी के दशक तक यह दौर चला क्योंकि तब तक फसलों के दाम बढ़ रहे थे। नई तकनीक आ रही थी और फसलें बेहतर दाम पर बिकने लगी थी। यही आत्मविश्वास उनको सरकारों के खिलाफ अपनी मांगों के लिए खड़ा भी करता रहा।

वैसे कोई भी बदलाव मध्य वर्ग ही लेकर आता है। पिछली यूपीए सरकार के दौर में भ्रष्टाचार  के विरुद्ध अन्ना हजारे के आंदोलन को शहरी मध्य वर्ग का साथ मिला था। जो बेहतर निजी नौकरियों, विदशों में नौकरियों के मौकों और 1991 के उदारीकरण के बाद देश में उपलब्ध हुए बेहतर शिक्षित लोगों  लिए ऊंची आय के मौकों ने तैयार किया था। लेकिन गांवों का मध्य वर्ग इससे अलग है। पिछले तीन दशकों में  शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच आय का अंतर बहुत तेजी  से बढ़ा। नीति आयोग के सदस्य प्रोफेसर रमेश चंद ने कृषि सुधारों को जायज ठहराने के लिए जो बुकलेट तैयार की है उसमें इस अंतर को तथ्यों के साथ पेश किया है। उनके मुताबिक कृषि में घटती आय के चलते खेती करने वाले और गैर खेती वाले वर्कर  आय में 1993-94 में 25398 रुपये का अंतर था जो 1999-2000 में बढ़कर 54377 रुपये हो गया। इसके दस साल बाद यह बढ़कर 1.42 लाख रुपये सालाना हो गया। उनका तर्क है कि इसे रोकने के कृषि सुधारों  की जरूरत है।

असल में ग्रामीण मिडिल क्लास की यही वह बेचैनी है जो उसे खेती में घटती आमदनी को लेकर परेशान कर रही है। नये कानूनों ने उन्हें अपने संकट को देश के सामने आंदोलन के रूप में लाने का मौका दे दिया। वह बदलाव चाहते हैं अपने बेहतर भविष्य के लिए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि न तो अब कोई चौधरी चरण सिंह है और न ही कोई सर छोटू राम जो किसानों के लिए बेहतरी लाने वाली नीतियां बनाने का माद्दा रखने के साथ ही इनकी समझ भी रखते हों। यह स्थिति राजनीतिक नेतृत्व के ह्रास का भी प्रतीक है और नीतिगत फैसले लेने वाले लोगों की योग्यता पर भी सवाल उठाता है।  

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