कृषि सुधार पर अब राज्य आगे बढ़ेंः प्रो. रमेश चंद

नीति आयोग के सदस्य प्रो. रमेश चंद का कहना है कि कृषि क्षेत्र के कुछ पहलू केंद्र के स्तर पर हैं और कुछ राज्य के स्तर पर। राज्यों की भी जिम्मेदारी उतनी ही बड़ी है, या कहें कि कृषि क्षेत्र के प्रति उनकी जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है। उनको इसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष पर व्यापक चर्चा करनी चाहिए, और उससे जो निकल कर आए उसे लेकर सुधारों की ओर जाना चाहिए।

कृषि सुधार पर अब राज्य आगे बढ़ेंः प्रो. रमेश चंद
नीति आयोग के सदस्य प्रो. रमेश चंद।

नीति आयोग के सदस्य प्रोफेसर रमेश चंद दुनिया के जाने-माने एग्रीकल्चरल इकोनॉमिस्ट हैं। देश की कृषि नीतियों के निर्धारण में हमेशा उनकी छाप दिखती है। एग्रीकल्चरल इकोनॉमिस्ट होने के नाते उन्होंने कई पेपर और किताबें लिखी हैं। हाल ही में हरित क्रांति और अमृत काल को लेकर भारतीय कृषि पर उनका महत्वपूर्ण पेपर आया है, जिसमें उन्होंने देश के कृषि क्षेत्र के भविष्य का रोडमैप रखने की कोशिश की है। रूरल वॉयस और रूरल वर्ल्ड के एडिटर इन चीफ हरवीर सिंह से उनकी बातचीत के प्रमुख अंशः 

एग्रीकल्चरल मार्केटिंग अब भी बड़ा जटिल मुद्दा है। इसके चलते फसलों की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव होते हैं जो किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए नुकसानदेह हैं। कृषि सुधारों का रोडमैप क्या होना चाहिए? किसान एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं, लेकिन आप किसानों के लिए भावांतर को एक प्रभावी नीतिगत कदम मानते हैं। इस पर आपकी क्या राय है और कैसे काम होना चाहिए?

कृषि उत्पादन की प्रकृति ऐसी है कि वह मौसम और जलवायु पर बहुत ज्यादा निर्भर करता है। इस कारण उनमें अस्थायित्व और उतार-चढ़ाव है, जो स्वाभाविक है। उसे रोक नहीं सकते, लेकिन जो उतार-चढ़ाव उत्पादन की प्रकृति की वजह से होते हैं और जिसका असर किसानों एवं उपभोक्ताओं पर पड़ता है, उसे हम मार्केट की सही नीतियों से कम कर सकते हैं और करना भी चाहिए। किसानों को उपज की जो कीमत मिलती है उसके दो पक्ष हैं। एक तो सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलता है और दूसरा, बाजार से कीमत मिलती है। ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि पूरक हैं। बाजार प्रतिस्पर्धी हो तो किसानों को वाजिब कीमत मिल जाएगी, लेकिन उत्पादन ज्यादा होने पर प्रतिस्पर्धा के बावजूद कीमत गिर जाती है। इसलिए बाजार में भी कीमतों को लेकर सरकार की ओर से हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़ती है। हमें दो-तीन चीजों का ध्यान रखना चाहिए। एक तो यह कि हम एमएसपी इतना न बढ़ाएं कि बाजार में यदि किसानों को बेहतर कीमत मिल सकती है, तो एमएसपी उसको नुकसान पहुंचाए। दूसरा यह कि एमएसपी देने का जरिया क्या है। हमारे देश में इसे ज्यादातर सरकारी खरीद के जरिये दिया जाता है। अनाजों की सरकारी खरीद इसलिए भी जरूरी है कि हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए अनाज चाहिए। अगर हमें पीडीएस से अलग अनाज की जरूरत है तब हमें दूसरे साधन अपनाने की जरूरत है, जैसे भावांतर भुगतान योजना जिसका आइडिया मैंने बहुत साल पहले दिया था। मध्य प्रदेश और हरियाणा में इस पर थोड़ा अमल हुआ है। इसलिए इस तरह के दूसरे साधनों का भी प्रयोग करना चाहिए जो एमएसपी के नकारात्मक असर को नियंत्रित कर सकते हैं। 

कृषि सब्सिडी नीति निर्धारकों और अर्थविदों के लिए बड़ा मुद्दा रहा है। यह जटिल होने के साथ राजनीतिक रूप से संवेदनशील भी है। आपके मुताबिक सब्सिडी देने की नीति पर अमल जारी रहना चाहिए या प्रोत्साहन आधारित आर्थिक नीति अपनानी चाहिए। कुछ राज्यों ने किसानों को सीधे कैश ट्रांसफर की नीति अपनाई हैं। केंद्र सरकार भी पांच साल से किसानों को डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर के रूप में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि दे रही है। क्या यह भविष्य में सब्सिडी की जगह ले सकता है?

दोनों के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं। इसके बारे में पहले मैं विस्तार से बता दूं कि इस पर क्या विचार करना चाहिए और हम किस स्थिति की ओर जा रहे हैं। सब्सिडी का सबसे ज्यादा फायदा यह है कि यह उत्पादन को प्रोत्साहित करता है और ग्रोथ लाता है, क्योंकि अधिकांश सब्सिडी इनपुट पर होती है। जो किसान इनपुट इस्तेमाल करेगा उसी को सब्सिडी मिलेगी। इसका एक पक्ष यह भी है कि कोई किसान अपनी जमीन में इनपुट का उपयोग नहीं करता है, तो उसे सब्सिडी मिलने का कोई औचित्य भी नहीं है। दूसरा है नगद देना, जिसका इस्तेमाल किसान किसी भी रूप में कर सकता है, चाहे वह फर्टिलाइजर इनपुट हो या कोई और इनपुट या कुछ और। यह सभी को मिलेगा, भले वह इनपुट इस्तेमाल करता हो या नहीं। लेकिन सब्सिडी से उत्पादन पर जितना सकारात्मक असर पड़ता है उतना नगद हस्तांतरण से नहीं पड़ता। जो फर्टिलाइजर का ज्यादा इस्तेमाल करता है उसका उत्पादन ज्यादा होता है। यह सिस्टम में एक बैलेंस लाता है। सब्सिडी कई तरह की हैं। जैसे आप बीज पर सब्सिडी देते हैं, फिर जो टेक्नोलॉजी का कैरियर है उस पर सब्सिडी देना अच्छी बात है। एग्रीकल्चर कंजर्वेशन के लिए सब्सिडी अच्छी है। यदि आप फार्म मैकेनाइजेशन के लिए सब्सिडी देते हैं, जिसकी वजह से किसान पराली जलाने की बजाय उसका प्रबंधन कर पाता है, तो यह बहुत अच्छा है। महत्वपूर्ण यह है कि सब्सिडी किस तरीके से देते हैं और किस चीज पर देते हैं। सब्सिडी देने से ज्यादा इसके नकारात्मक प्रभाव सब्सिडी देने के तरीकों से पैदा हुए हैं। हम सिंचाई के लिए किसानों को मुफ्त बिजली देते हैं, इससे पानी का ज्यादा इस्तेमाल होगा और भूजल स्तर नीचे चला जाएगा। इस तरह दोनों के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू हैं। हमें सारे पक्षों को ध्यान में रखकर एक बैलेंस्ड अप्रोच बनाकर चलना चाहिए। 

हम डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर और इनकम सपोर्ट की ओर जा रहे हैं और सब्सिडी भी दे रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने इसे तर्कसंगत नहीं बनाया है, ऐसा नहीं होना चाहिए। तर्क दिया जाता है कि किसानों को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर या इनकम सपोर्ट सब्सिडी कम करने के लिए दिया जा रहा है, लेकिन वास्तव में हम उसको कम नहीं कर रहे हैं। यदि सभी सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों को देखा जाए तो इनकम सपोर्ट के रूप में दी जाने वाली राशि सब्सिडी की तुलना में बेहतर है।

खाद्य सुरक्षा में भारत ने आत्मनिर्भरता हासिल की है और देश एक बड़े कृषि निर्यातक के रूप में उभरा है। कृषि निर्यात का स्तर 50 अरब डॉलर को पार कर गया है। लेकिन दो साल से गेहूं, चावल और चीनी निर्यात पर प्रतिबंध या सख्ती की स्थिति क्यों पैदा हो गई है, जबकि सरकार ने रिकॉर्ड उत्पादन के दावे किये हैं। कृषि उत्पादों के निर्यात को लेकर नीतियों में स्थायित्व क्यों नहीं है? अचानक लिए जाने वाले फैसलों को आप कैसे देखते हैं?

यदि आपकी परिस्थिति में स्थायित्व नहीं है तो आप नीति को भी स्थायी नहीं रख सकते हैं। नीतियां परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। यदि ऐसी परिस्थिति बनती है कि अंतरराष्ट्रीय कीमतों में 10-15 फीसदी के सामान्य उतार-चढ़ाव से ज्यादा बदलाव आ जाता है तो यह हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है। देश में अचानक कहीं बाढ़ या कोई प्राकृतिक आपदा आ गई, या किसी परिस्थिति में उत्पादन ज्यादा प्रभावित हो गया, तो उस स्थिति में आपको यह चुनना होता है कि आप देश को प्राथमिकता देते हैं या विदेश को। आपका अपना उपभोक्ता प्राथमिकता में है या विदेश का। इसलिए मैंने कहा की परिस्थिति स्थायी नहीं रहती, खासकर कृषि के मामले में। इसलिए हम नीतियों को भी स्थायी नहीं रख सकते। 

बहुत से फैसले देखने में लगता है कि अचानक लिए गए, लेकिन आप देखेंगे कि जरूर कोई न कोई कारण रहा होगा। जैसा पिछले दिनों आपने प्याज के मामले में देखा। प्याज में अचानक इस तरह की स्थिति बनी थी। अगर उसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाता तो जैसा कि पहले होता था, प्याज की कीमत 100 रुपये तक चली जाती। फूड मैनेजमेंट और फूड प्राइस को नियंत्रित रखना उपभोक्ता और किसानों दोनों के लिहाज से जरूरी हो जाता है। मैं आपकी इस बात से जरूर सहमत हूं कि यह हस्तक्षेप तभी होना चाहिए जब कीमत एक तय सीमा से ऊपर या नीचे चली जाए। 

किसानों और व्यापारियों सभी के मन में यह रहना चाहिए अगर कीमतें तय सीमा में रहेंगी तो सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी। उससे ऊपर या नीचे जाएंगी तो सरकार जरू हस्तक्षेप करेगी। विदेशों में भी ज्यादातर सरकारें ऐसा करती हैं। हमारे यहां भी शुरू से ऐसा होता रहा है। ऐसा नहीं कि ट्रेड को फ्री छोड़ दिया गया है। हमने हमेशा पॉलिसी ऑफ स्ट्रैटेजिक लिबरलाइजेशन को माना है। हमारा लक्ष्य रहा है कि हम अपने प्राइस को इंटरनेशनल ट्रेड के हिसाब से ऊपर-नीचे जाने देंगे, लेकिन उतार-चढ़ाव ज्यादा होने पर हम उसे प्रोटेक्ट करेंगे, कभी उपभोक्ता के लिए, तो कभी किसानों के हित में।

क्या रद्द किये गये तीन कृषि कानून समय की जरूरत थी, क्या अब भी कृषि सुधारों पर काम होना चाहिए? सरकार दो साल से लगातार आवश्यक वस्तु अधिनियम का उपयोग कर रही है जो तीन कृषि कानूनों की उदार कृषि बाजार भावना के अनुरूप नहीं है। ये दोनों विषय एक दूसरे के प्रतिकूल हैं, तो कृषि क्षेत्र में सुधारों की कितनी जरूरत है

जब तीन कृषि कानून वापस लिए गए थे तो प्रधानमंत्री ने कहा था कि शायद हम किसानों को इन कानूनों के फायदे समझाने में असफल रहे। नीतियों में कमियां हो सकती हैं। जब किसान प्रदर्शन कर रहे थे तब मैंने नीति आयोग से पेपर जारी किया था। जो लोग इसमें रुचि रखते हैं उनको वह पेपर देखना चाहिए कि सरकार के विचारकों ने किस सोच के साथ नए कानून लाने की प्रक्रिया शुरू की थी। मेरा मानना है कि किसी भी इकोनॉमी में प्रगति के कई महत्वपूर्ण कारण होते हैं। जैसे, टेक्नोलॉजी प्रोडक्शन बढ़ाने का कारक होता है, दूसरा, हमारी पॉलिसी और इंस्टीट्यूशन उसके कारक होते हैं। परिस्थिति के हिसाब से यदि हम पॉलिसी और इंस्टीट्यूशन में सुधार नहीं करते हैं तो इंक्रीमेंटल चेंज ही आएगी, ट्रांसफॉर्मेशनल चेंज नहीं आएगी। सुधार लाना बहुत जरूरी है। पिछले दिनों मैं मार्केटिंग के एक कॉन्फ्रेंस में तमिलनाडु गया था। वहां मैंने मार्केटिंग सोसायटी से कहा था आप हर राज्य में यह डिबेट करें, क्योंकि वर्ष 2002 से इस पर बहुत अच्छे-अच्छे विचार आ चुके हैं, इन पर बहुत डिबेट हो चुकी है, हमें उसको छोड़ना नहीं चाहिए। थिंकर्स ने अपनी ओर से बेहतर करने का प्रयत्न किया, लेकिन वह किन्हीं कारणों से पूरा नहीं हो सका। राज्य स्तरीय समितियों को अपनी परिस्थितियों के हिसाब से इन कानूनों के उन मॉडल पर चर्चा करनी चाहिए जो फायदेमंद हो सकते हैं। जैसे मॉडल एपीएमसी एक्ट आया था, मॉडल कांट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट था, मॉडल लैंड लीजिंग एक्ट था, उन मॉडल को लेकर राज्य अपने यहां चर्चा करें। मैं किसानों से भी आपके माध्यम से अपील करूंगा कि वे खुले मन से इन पर चर्चा करें। इनको ठंडे बस्ते में डालना कृषि क्षेत्र और किसानों के लिए अच्छा नहीं होगा। 

थिंकर्स इसको एक बार लाकर वापस कर चुके हैं, तो मुझे नहीं लगता कि केंद्र की तरफ से इसको दोबारा लाने का कोई औचित्य है। हम सब जानते हैं कि कृषि क्षेत्र के कुछ पहलू केंद्र के स्तर पर हैं और कुछ राज्य के स्तर पर। राज्यों की भी जिम्मेदारी उतनी ही बड़ी है, या कहें कि कृषि क्षेत्र के प्रति उनकी जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है। उनको इसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष पर व्यापक चर्चा करनी चाहिए, और उससे जो निकल कर आए उसे लेकर सुधारों की ओर जाना चाहिए। 

दूसरा, आपका सवाल है कि केंद्र सरकार एक ओर आवश्यक वस्तु अधिनियम में सुधार लेकर आई थी, तो दूसरी ओर खुद उसका ज्यादा इस्तेमाल कर रही है। आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव लाने का आधार यह था कि मार्केट में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो मार्केट में निजी निवेश बढ़ेगा। यदि कभी किसी चीज की उपलब्धता की जरूरत हो, तो सरकार का ही नहीं बल्कि निजी क्षेत्र का भी बफर स्टॉक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। क्योंकि दो ही तरीके से कीमतें स्थिर रह सकती हैं, या तो आप ट्रेड करो या फिर स्टॉक में रखो। ज्यादातर देशों में सरकारी स्टॉक नहीं होता है, वहां प्राइवेट स्टॉक से ही उतार-चढ़ाव को नियंत्रित किया जाता है। यदि बाजार से संबंधित कानून लागू हो जाता तो आप देखते कि निजी निवेश कितना बढ़ता, कितने भंडारण गृह बनते। बजाय इसके कि सारा माल एकदम से बाजार में आ जाए, वह धीरे-धीरे कीमत के हिसाब से बाहर आता। आवश्यक वस्तु अधिनियम और बाजार को लेकर कानून एक दूसरे के पूरक थे। आवश्यक वस्तु अधिनियम रहेगा तो निजी निवेश नहीं आएगा, और अगर निजी निवेश नहीं आता है तो आपको आवश्यक वस्तु अधिनियम की जरूरत पड़ेगी। यह एक वजह है कि पहले सरकार जो करना चाहती थी अब उसके विपरीत कर रही है।

आपने पिछले दिनों हरित क्रांति से अमृत कालः लेसंस एंड वे फारवर्ड फॉर इंडियन एग्रीकल्चरपेपर जारी किया, जिसमें हरित क्रांति से सबक लेकर कृषि की भावी रणनीति के लिए कदमों को सामने रखा है। इन पर अमल कैसे होगा?

पिछले 75 वर्षों में हमारी कई उपलब्धियां रही हैं और पिछले 10 वर्षों में तो हमारा ऐतिहासिक रिकॉर्ड रहा है। कृषि क्षेत्र की ग्रोथ 4-5 फीसदी रही है। ऐसी कई उपलब्धियां हैं। उनके साथ बहुत सारी चुनौतियां भी खड़ी हुई हैं। जलवायु परिवर्तन कृषि क्षेत्र के लिए बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है, केमिकल के बहुत ज्यादा प्रयोग से लोगों के स्वास्थ्य पर असर पड़ा है। इन सब चीजों को ध्यान में रखकर उस पर साइंटिफिक तरीके से रोड मैप नहीं बनाएंगे तो इधर-उधर भटकने की आशंका रहेगी। मैंने उसमें यह बात भी लिखी है कि हम जो प्राकृतिक खेती की ओर जाने की बात कह रहे हैं, उससे हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभावों में सुधार आएगा। इनको देखते हुए एक रोड मैप तैयार किया है। उसमें एक-दो बातें मैं आपके माध्यम से कहना चाहूंगा। अधिकांश सबूत ऐसे हैं कि एग्रो-केमिकल आधारित खेती को छोड़कर परंपरागत खेती, जिसमें एग्रो-केमिकल का इस्तेमाल नहीं होता था और देसी बीज का उपयोग होता था, में उत्पादकता 30 से 35 फीसदी प्रभावित होगी। परंपरागत खेती में उत्पादकता की कमी को मैं दूसरे तरीके से देखता हूं। हरित क्रांति की वजह से जो आधुनिक खेती शुरू हुई, उसमें 100 साल के विज्ञान की भूमिका है। मक्का का हाइब्रिड 1920 में ही आ गया था। फिर केमिकल आए, तरह-तरह के सीड्स आए, और कई सारी चीजें आईं। एक ओर 100 साल का विज्ञान और दूसरी ओर परंपरागत खेती जिसमें हमने विज्ञान को शामिल ही नहीं किया। 

इन सबको देखते हुए मैंने एक रोड मैप रखा है कि उत्पादन प्रभावित होने की जो आशंका है, उसका एक हिस्सा हम सहन कर सकते हैं क्योंकि अब हम खाद्यान्न में सरप्लस हैं। हम यह चांस ले सकते हैं कि धीरे-धीरे उस ओर बढ़ते जाएं लेकिन बहुत संभल कर। दस साल बाद इसका जायजा लें कि इस दौरान इसमें विज्ञान को शामिल कर उत्पादकता बढ़ाने में कामयाब हो गए ताकि हमारी खाद्य सुरक्षा पर कोई नकारात्मक असर न पड़े। 

उदाहरण के लिए, जब हम अगले 25 साल के लिए विकास की बात करते हैं, तो अक्सर कहा जाता है कि विकसित देशों में कृषि को लेकर क्या हुआ था। जब वे विकासशील से विकसित देश बने तो उनका एक मॉडल था। वे उसी के अनुसार विकसित हुए और वहां की सभी सरकारों ने उस मॉडल को लेकर अपनी नीतियां बनाई। वह मॉडल यह था कि जब कोई अर्थव्यवस्था प्रगति करती है तो वहां इंडस्ट्री बढ़ती है और मजदूर कृषि क्षेत्र छोड़ कर इंडस्ट्री में आते हैं। दोनों क्षेत्रों में नई-नई मांग आती है और देश की आय और देश के रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी घटती जाती है। पश्चिमी देशों में आप देखेंगे कि कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी इकोनॉमी में 2-4 फीसदी ही है और 2-4 फीसदी लोग ही वहां कृषि में लगे हुए हैं। मगर पिछले कुछ सालों में यह पाया गया कि गैर कृषि क्षेत्र, विशेष तौर पर इंडस्ट्री सेक्टर बहुत कम रोजगार पैदा कर पा रहा है। सेक्टर की ग्रोथ तो 10 फीसदी हो रही हो लेकिन रोजगार की ग्रोथ 2-4 फीसदी ही है।

विकासशील से विकसित बने उन देशों ने जो मॉडल अपनाया, हमारे लिए आज की इंडस्ट्री उस विकल्प को बंद कर चुकी है। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि विकसित भारत का लक्ष्य लेकर अगर हम चल रहे हैं, जिसमें हर व्यक्ति की आमदनी 2100 डॉलर से बढ़कर 11-12 हजार डॉलर हो जाएगी, तो फिर लोगों को रोजगार कहां मिलेगा, लोगों की आमदनी कहां से होगी। सरकार का इनक्लूसिव ग्रोथ का जो लक्ष्य है, उसमें हमें सिर्फ देश की आमदनी नहीं बढ़ानी, बल्कि सभी लोगों की आमदनी बढ़ानी है, और आमदनी बढ़ती है रोजगार से। उस रोड मैप में मैंने इस चीज को भी उजागर करने की कोशिश की है कि हमें अब कृषि केंद्रित विकास के बारे में सोचना होगा, क्योंकि हमारा रोजगार अब भी कृषि केंद्रित है। 2022-23 का पीएलएफएस का सर्वे भी कहता है कि 45.8 फीसदी कार्यबल कृषि क्षेत्र में ही है। उसमें बहुत धीमी गति से कमी आ रही है। सस्टेनेबिलिटी, इम्प्लॉयमेंट, क्लाइमेट चेंज और इसी तरह ग्रोथ की गति को बरकरार रखना, इन सब को देखकर मैंने उसमें एक पोजीशन लिया है कि विकसित भारत बनाने में कृषि केंद्रीय भूमिका अदा करेगा। 

कृषि में नई तकनीक पर जोर है लेकिन कृषि शोध और ढांचागत सुविधाओं पर सार्वजनिक निवेश नहीं बढ़ रहा है जिसकी जरूरत लगातार कृषि वैज्ञानिकों की ओर से बताई जाती रही। जीएम टेक्नोलॉजी को लेकर भी सरकार की नीति बहुत स्पष्ट नहीं। क्या जीएम टेक्नोलॉजी भारत के लिए उपयोगी है और क्या शोध एवं तकनीक को अपनाने एवं निवेश बढ़ाने को लेकर हमें आक्रामक रुख अपनाना चाहिए

कृषि क्षेत्र में तकनीक कई सारे क्षेत्र से आ रहे हैं। पहले हम पब्लिक सेक्टर पर ही पूरी तरह निर्भर थे। अब आप देख रहे होंगे कि एग्री-स्टार्टअप भी आ रहे हैं, निजी क्षेत्र भी है। लेकिन हमने एग्रीकल्चर का जो फ्रेगमेंटेशन कर दिया- एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, वेटनरी यूनिवर्सिटी, हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी, फिशरीज यूनिवर्सिटी- उससे फिक्स्ड कॉस्ट इतनी ज्यादा बढ़ गई कि जो पैसा शोध में जाना चाहिए था वह वेतन में जाने लगा। उसका हम एफिशिएंट इस्तेमाल कर सकते थे। कई सरकारें यह भी कहती हैं कि सब्सिडी पर सारा पैसा खर्च हो जाता है तो शोध के लिए कहां से दें। हमें इसको गंभीरता से लेना चाहिए। पब्लिक सेक्टर के शोध से ही देश में मजबूती आती है। मैं तो यह भी कहूंगा कि किसान भाई के फायदे के लिए जो टेक्नोलॉजी है वह उसका प्रचार करें, राज्यों को भी इसके लिए कोशिश करनी चाहिए और यह बहुत जरूरी है। आजकल टेक्नोलॉजी महंगी भी होती जा रही है। हमें विश्व के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है। 

आपने जीएम टेक्नोलॉजी का सवाल पूछा, यह संवेदनशील मुद्दा है लेकिन मैं इसका जवाब देने में हिचकिचाऊंगा नहीं क्योंकि यह देश और किसानों के भविष्य का मामला है। पहले तो मेरा यह मानना है कि जहां परंपरागत तकनीक से आपको सफलता मिलती है वहां हमें जीएम में बिल्कुल नहीं जाना चाहिए। जैसे गेहूं में, चावल में जो सफलता मिल रही है तो उसमें जाने की जरूरत नहीं है। मगर पूरा जोर लगाने के बाद भी अगर परंपरागत तकनीक से हमें कुछ नहीं मिलता है तब हमें मजबूरी में जीएम टेक्नोलॉजी की ओर जाना चाहिए। दूसरा, जो यह कहा जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर सीड्स के जरिये टेक्नोलॉजी को बहुत महंगा कर देता है, तो जहां पर जीएम का डेवलपमेंट पब्लिक सेक्टर इंस्टीट्यूशन करती है, जैसे बैंगन को डेवलप किया, सरसों को डेवलप किया, हमें वैसा करना चाहिए। तीसरा हमारे देश में जीएम टेक्नोलॉजी का ऑब्जेक्टिव असेसमेंट नहीं है। यहां तक कि जीईएसी में भी कोई कृषि वैज्ञानिक ही नहीं था। कृषि वैज्ञानिक को नीति निर्धारण में रखना जरूरी है। हम केमिकल का इस्तेमाल कम करना चाहते हैं, जीएम टेक्नोलॉजी तो कई तरह के केमिकल का सब्सटीट्यूट हैं जिसमें आपको केमिकल से मुक्ति मिलती है, तो इन सब चीजों को हमें देखना चाहिए। और चौथा, हम टेक्नोलॉजी को कहीं बहुत ज्यादा इग्नोर तो नहीं कर रहे हैं। एक तरफ टेक्नोलॉजी की अनदेखी कर रहे हैं और दूसरी तरफ हमें खाद्य तेलों के आयात पर अरबों डॉलर खर्च करने पड़ते हैं। इन सब बातों को देखते हुए देश को इसे पूरी तरह खारिज नहीं करना चाहिए। कहीं और हमें सफलता नहीं मिलती है तो खाद्य तेल में इसको जरूर मौका देना चाहिए।

पर्यावरण में बदलाव की बढ़ती घटनाओं से कृषि पर बड़ा असर पड़ रहा है। किसान भी समझने लगे हैं कि क्लाइमेट चेंज का क्या नुकसान है। हाल ही संयुक्त राष्ट्र् के कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले तीन दशकों में कृषि और सहयोगी क्षेत्र के उत्पादन को क्लाइमेट चेंज, प्राकृतिक आपदा और प्रतिकूल मौसम से 3.8 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। इससे हम कैसे निपट पाएंगे। कृषि उत्पादन और किसानों की आय को इससे कैसे सुरक्षित रख पाएंगे, इससे कैसे संतुलन बना पाएंगे?

यह प्लेनेट और लोगों के सर्वाइवल का मुद्दा है, किसानों की आमदनी का मुद्दा नहीं। पर्यावरण संबंधी एक नेशनल एक्शन प्लान है जिसमें अलग-अलग मिशन हैं। वाटर मिशन भी है जो एग्रीकल्चर से जुड़ा हुआ है। एग्रीकल्चर ऐसा सेक्टर है जो क्लाइमेट चेंज से प्रभावित भी होता है और क्लाइमेट को प्रभावित भी करता है। तापमान एक डिग्री बढ़ जाए तो उससे कार या फ्रिज का उत्पादन प्रभावित नहीं होता, लेकिन कृषि उत्पादन प्रभावित होता है। क्लाइमेट चेंज का सबसे नकारात्मक असर एग्री फूड सेक्टर पर होने वाला है। 

दूसरा एक मुद्दा है जिसे पूरी तरह इग्नोर किया गया है। मैंने भी एफएओ के जरिये दुनिया के 14 देशों के महत्वपूर्ण लोगों को बुलाया था इसी बात पर चर्चा करने के लिए। मैंने एफएओ से भी इस मुद्दे को आगे लाने के लिए कहा कि किसान अब यह तो समझ रहे हैं कि क्लाइमेट चेंज से कृषि पर क्या असर हो रहा है, लेकिन इस बात को लेकर जागृत नहीं हैं कि कृषि का भी क्लाइमेट चेंज पर प्रभाव पड़ता है। हम इसे केवल इंडस्ट्री और ट्रांसपोर्ट सेक्टर पर नहीं छोड़ सकते कि वे अपना उत्सर्जन कम करें। भारत में क्लाइमेट चेंज में एग्रीकल्चर की भूमिका 17 फीसदी है। एग्रीकल्चर तो इसमें सबसे बड़ा स्टेकहोल्डर है। एग्रीकल्चर से ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं। जिस तरह हम इलेक्ट्रिकल व्हीकल की बात कर रहे हैं, ग्रीन इकोनॉमी और ग्रीन हाइड्रोजन की बात कर रहे हैं, उसी तरह कृषि में उत्सर्जन कम करने पर बात करनी पड़ेगी। अभी यह फैसला हुआ है कि डेढ़ डिग्री तापमान वृद्धि पर हमें रोक लगानी है। अभी तक हमें इसका नुकसान इसीलिए महसूस नहीं हुआ क्योंकि विज्ञान क्लाइमेट चेंज के असर को कम करने में कामयाब हुआ है। मगर उसकी एक सीमा है और हम ऊपरी सीमा की ओर बढ़ रहे हैं। जब हम उस सीमा पर पहुंच जाएंगे तब कोई भी साइंस उसको काउंटर करने में सक्षम नहीं होगा। हमें क्लाइमेट चेंज से एग्रीकल्चर को बचाना है, और पर्यावरण को बचाने के लिए एग्रीकल्चर का योगदान भी बाकी सेक्टर की तरह कम करना है। 

फसलों से अधिक उत्पादन वृद्धि डेयरी, फिशरीज और हॉर्टिकल्चर में आ रही है। ऐसे में क्या आपको लगता है कि कृषि विविधीकरण के जरिये किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है?

निश्चित तौर पर, अगर आप आमदनी को देखें तो… हॉर्टिकल्चर क्रॉप में रिस्क जरूर है लेकिन नॉन हॉर्टिकल्चर क्रॉप की तुलना में इसमें 4 से 5 गुना ज्यादा आमदनी है। आज सबसे ज्यादा उत्पादकता और सबसे ज्यादा ग्रोथ उन राज्यों में आ रही है जो विविधीकरण की ओर जा रहे हैं। हरित क्रांति की वजह से उत्पादकता में आगे रहने वाले हरियाणा और पंजाब जैसे राज्य अब टॉप पर नहीं हैं। आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश आगे निकल रहे हैं। जहां विविधीकरण हुआ या हो रहा है वहीं तेजी से ग्रोथ हो रही है, वहीं पर ज्यादा उत्पादकता मिल रही है। हमें एमएसपी पर निर्भर किसानों को नए रास्ते देने होंगे। मेरे जिस पेपर का आपने जिक्र किया था, उसमें मैंने इससे संबंधित एक ग्राफ दिया है। एग्रीकल्चर के जिस सेगमेंट में सरकार का ज्यादा हस्तक्षेप है, चाहे एमएसपी से या सब्सिडी से, उसकी ग्रोथ उतनी कम है। उसकी वजह यही है कि विविधीकरण मांग पर निर्भर है और जो मांग पर निर्भर होता है उसकी कीमत देने की शक्ति ज्यादा होती है। इसलिए आप देख रहे हैं कि सब्जियों, फल, अंडे, पोल्ट्री, दूध और मछली में मांग के हिसाब से ग्रोथ हो रही है। अनाजों की मांग बहुत धीमी गति से बढ़ रही है। विविधीकरण ग्रोथ और किसानों की आमदनी बढ़ाने का बहुत बड़ा कारक है। 

आपका आकलन है कि आने वाले दशकों में भारत को अपने अतिरिक्त उत्पादन के 25 फीसदी तक के लिए निर्यात बाजार तलाशने होंगे। क्या इस तरह की किसी रणनीति पर काम हो रहा है? विश्व व्यापार संगठन और क्षेत्रीय स्तर पर हो रहे व्यापार समझौतों में इसकी कितनी गुंजाइश है?

हमें अगले 10 साल में कितने फीसदी विदेशी मार्केट की तलाश करनी पड़ेगी, वह इस उम्मीद पर है कि हमारा कृषि क्षेत्र 3 से 3.5 फीसदी ग्रोथ करेगा। इंडस्ट्री डिमांड दो-सवा दो फीसदी हो रही है, तो हमारा सरप्लस बढ़ता जाएगा। आज स्थिति सामान्य नहीं है, अंतरराष्ट्रीय कीमतें ऊंचे स्तर पर हैं। आज तो आपका कुछ भी एक्सपोर्ट हो जाएगा। लेकिन दो-तीन साल बाद कीमतें नीचे आ जाएंगी क्योंकि कीमतों का एक चक्र होता है। गेहूं की कीमत नीचे आ जाएगी। हमें कृषि क्षेत्र को उस स्थिति में प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए तैयार करना है। उसके लिए मैंने सुझाव भी दिए हैं कि दो तरीके से प्रतिस्पर्धा होती है। एक है सप्लाई चेन और दूसरा प्रोडक्शन। हमें उनको लेकर चलना है, वरना प्राइस क्रैश के चांस बन जाते हैं। हमें कृषि में एफिशिएंसी लाकर कुछ हिस्सों को निर्यातोन्मुखी बनाना होगा। उसमें बहुत सारे विकल्प आ रहे हैं। आपने ओएनडीसी प्लेटफार्म यानी ओपन नेटवर्क व डिजिटल कॉमर्स के बारे में सुना होगा। उसके जरिये अगर उपज बेचेंगे तो लागत में बचत होती है। दूसरा जरिया है एफपीओ का जिसको हम ओएनडीसी के साथ लिंक कर रहे हैं। इस तरह के कुछ इन्नोवेटिव विचार हैं मार्केटिंग में। हमें सिर्फ प्रोडक्शन में नहीं, मार्केटिंग में भी लागत कम करनी है। हमें उत्पादन के साथ सप्लाई चेन में भी एफिशिएंसी लानी होगी। हमें ट्रांसपोर्टेशन और मार्केटिंग दोनों को प्रतिस्पर्धी बनाकर आगे बढ़ाना है। यही हमारी कृषि का भविष्य है।

अब भी भारत की कामकाजी आबादी का 45.8 फीसदी खेती और उससे जुड़े क्षेत्रों से ही आजीविका कमा रहा है। गैर कृषि क्षेत्र वालों और इनकी आय का अंतर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में ग्रामीण और शहरी भारत के बीच की खाई बढ़ रही है, उसे कैसे कम किया जाए?

हमारी जोतों का आकार छोटा है। छोटे किसान बड़े किसानों की तुलना में ज्यादा एफिशिएंट हो रहे हैं। कहा जाता है कि स्मॉल इज ब्यूटीफुल (जो छोटा है वह खूबसूरत है), लेकिन यहां जो छोटा है वह मजबूत नहीं है। उनके लिए आय के वैकल्पिक स्रोत जरूरी हैं। ऐसे पार्ट टाइम किसान हैं जिनकी आधी से ज्यादा आमदनी गैर-कृषि स्रोतों से आती है, जैसे छोटा-मोटा रोजगार। बहुत से ऐसे किसान हैं जो कृषि छोड़कर जाना चाहते हैं। ऐसे भी हैं जो लीज पर जमीन लेकर अपनी जोत बढ़ाना चाहते हैं। इस तरह के सभी मैकेनिज्म को हमें बढ़ावा देना चाहिए। छोटे और सीमांत किसानों के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि हम उन्हें संगठित करें, उनका स्केल बढ़ाएं। खेती में हार्वेस्टिंग के बाद वैल्यू एडिशन की संभावना बढ़ाएं। छोटे और सीमांत किसानों के लिए हमें पार्ट टाइम फार्मर का ही मॉडल अपनाना पड़ेगा और उन्हें गैर कृषि क्षेत्र से आधी से ज्यादा आमदनी दिलाने के अवसर पैदा करने होंगे। इसलिए मैंने शुरुआत में ही कहा था कि कृषि का जो मॉडल विकसित देशों ने अपनाया था उसे हम नहीं अपना सकते, हमें अपना अलग मॉडल बनाना पड़ेगा।

भारत में फसलों की उत्पादकता का औसत अमेरिका जैसे विकसित देश और चीन जैसे विकासशील देश के मुकाबले कई फसलों में आधा है। इसकी वजह कृषि शोध की कमी है या किसानों के पास संसाधनों व जरूरी कौशल न होना इसकी वजह है?

इसमें बहुत से फैक्टर हैं, लेकिन सकारात्मक फैक्टर यह है कि पैदावार का अंतर कम हो रहा है। पिछले 10 साल में भारत का कृषि विकास चीन से ज्यादा है। यह पहली बार हुआ है। बीते 10 साल में हमारी ग्रोथ रेट विश्व औसत के डेढ़ गुना से भी ज्यादा है। चीन और अमेरिका से हमारी ग्रोथ ज्यादा है, इसलिए पैदावार का अंतर कम होना शुरू हो गया है। चीन में ऊंची पैदावार के दो कारण हैं। एक तो वहां फर्टिलाइजर का इस्तेमाल बहुत ज्यादा होता है, हमारे देश से दो-गुना तीन-गुना ज्यादा। दूसरा, चीन के लोग फसलों की देखभाल ज्यादा करते हैं, तो उसका भी असर उत्पादकता पर है। हम मोनोक्रॉपिंग के खिलाफ बातें करते हैं, वहां काफी मजबूत मोनोक्रॉपिंग होती है। बहुत से ऐसे फैक्टर हैं, लेकिन अब हम इसे लेकर काफी सतर्क हैं। बाहर से टेक्नोलॉजी आ रही है और देश में भी विकसित हो रही है। ऐसा नहीं कि हम सब में कमतर हैं, कुछ फसलों में विश्व औसत से बेहतर उत्पादकता है। यदि हमारी पैदावार का स्तर कम है तो हमारे पास चीन और अमेरिका की तुलना में ग्रोथ के अवसर बहुत ज्यादा हैं, जबकि उनके लिए ग्रोथ के मौके सीमित होते जा रहे हैं।

कृषि क्षेत्र के लिए कर्ज पर सरकार सब्सिडी देती है लेकिन अलग-अलग राज्यों में करीब 15 से 30 फीसदी खेती करने वाले बटाईदारों को इसका फायदा नहीं मिलता है। मॉडल लैंड लीजिंग एक्ट या दूसरे सुधारों को लागू किया जाना क्या अब समय की जरूरत है?

देश के अलग-अलग इलाकों में अलग स्थिति है। यदि आप बिहार, झारखंड, असम, ओडिशा जैसे पूर्वी राज्यों को देखेंगे तो वहां अब भी  इंस्टीट्यूशनल कर्ज कम है। हमें उसको बढ़ावा देने की जरूरत है। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां ज्यादा क्रेडिट दिया जा रहा है। वह कर्ज इधर-उधर खर्च हो रहा है। वहां हमें अलग नीति की जरूरत है। जैसा कि किसान नेता कहते हैं, किसानों को गिरवी रखने में बैंकों का भी रोल है, वह उनको बहुत ज्यादा कर्ज देते हैं। इसमें बदलाव आ रहा है। किसान क्रेडिट कार्ड बने हैं, अब तो पशु किसान कार्ड भी बना रहे हैं, मछली पालन के लिए भी किसान क्रेडिट कार्ड बन रहे हैं। किसानों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे ऐसा लोन लें जिसको वापस करने में सहूलियत बनी रहे। कई इलाकों में एग्रीकल्चर क्रेडिट का एक मैकेनिज्म बन गया है। साल पूरा होने पर आपने पैसा वापस किया और अदल-बदल करके फिर ले लिया। मैं कहूंगा कि नॉर्थ वेस्ट इंडिया में क्रेडिट का रोल डायवर्सिफिकेशन लाने में होना चाहिए। 

आपने लैंड लीज एग्रीमेंट का जो सवाल उठाया, तो उन किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है और आगे भी बढ़ेगी। लेकिन उनके पास जमीन नहीं है, इसलिए लोन के लिए उनकी पात्रता नहीं है। बहुत पहले नीति आयोग ने एक लैंड लीज मॉडल दिया था जिसको कुछ राज्यों ने सीमित रूप में अपनाया लेकिन इसकी हमें बहुत बड़ी जरूरत है। देश में परती भूमि बढ़ती जा रही है। किसानों के बेटे अब गैर कृषि क्षेत्र में आ रहे हैं। कुछ परिवारों में अगर एक ही बेटा है तो वहां कोई खेती करने वाला नहीं है। उनकी जमीन खाली पड़ी है। मॉडल लैंड लीजिंग एक्ट लागू करने पर राज्यों को जरूर ध्यान देना चाहिए। इससे बहुत फर्क पड़ेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से छोटे किसान जमीन बटाई पर लेकर गुजारा करने की बेहतर स्थिति में होंगे। अभी जिनको साहूकारों से कर्ज लेना पड़ रहा है उनको भी सब्सिडी वाला कर्ज मिल सकेगा। लैंड लीज मॉडल अपनाना बहुत महत्वपूर्ण है। इससे जमींदार और बटाईदार दोनों की सुरक्षा हो सकेगी।

किसान कर्ज माफी कितना जरूरी है और इसका मकसद सही है या नहीं?

यदि कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा आ जाती है तो उस स्थिति में मैं कहूंगा कि इसे जस्टिफाई किया जा सकता है। अगर कोई बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न नहीं होती है, तो कर्ज माफी से इंस्टीट्यूशनल क्रेडिट डिलीवरी सिस्टम को बहुत ज्यादा नुकसान होता है। मेरे ख्याल से सामान्य परिस्थितियों में इस तरह की चीजों से बचना चाहिए।

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